विदिशा

रामकथा चौथा दिन- शंकर जी ने पार्वती जी को कथा सुनाते हुए ज्ञान, भक्ति, विज्ञान और बैराग्य के विभाग करके बताऐ।

आनंदपुर डेस्क :

संसार में जितने भी प्राणी हैं उनके स्वभाव, शैली और व्यवहार का अंतर है वही ज्ञान, भक्ति,बैराग्य का तत्त्व विभाग है जो श्रीराम चरितमानस और तुलसीदास जी की व्यापकता का प्रमाण है। राम भरत शत्रुघ्न और लक्ष्मण में अद्वैत देखे बग़ैर समझना सम्भव नहीं है ।

स्वामी मैथिलीशरण ने अपने प्रवचन के चौथे दिन कहीं यह

रामकथा में तत्त्व विभाग की चर्चा में हुआ रस वर्षण।

कैकेई जी के द्वारा बनवास की बात सुनकर भगवान श्रीराम पर जो प्रतिक्रिया हुई उसकी कल्पना कैकई जी कभी स्वप्न में भी नहीं कर सकती थीं।वे श्रीराम को दुख और भरत को सुख देना चाहती थी। संसार दुख और सुख की जो सीमित व्याख्या करता है वह पूरी तरह मिथ्या और कल्पित है। सुख और दुख कोई देता नहीं है, व्यक्ति स्वयं लेता है।

यहाँ परिस्थिति कैकई जी की कल्पना से बिल्कुल बिपरीत हो गई ।जहाँ भरत को राज्य मिलने की बात सुनकर भगवान राम को अनंत सुख मिला।वहीं पर श्रीराम को बनवास के समाचार से श्रीभरत को मर्मांतक दुख पहुँचा। भगवान राम ने माता कैकई से कहा भी कि आपने मेरा तो हर तरह से हित ही किया है,बन में मेरा बहुत से मुनियों से मिलना होगा,सबसे बड़ी बात तो यह है कि मेरे भाई भरत को राज्य मिलेगा और उसमें भी आपकी इच्छा पूर्ति होगी इससे बड़ा सुख मेरे लिए क्या हो सकता है?

श्री भरत ने ननिहाल से लौटकर श्रीराम के बनवास और पिता जी की मृत्यु के समाचार में माँ कैकेई की अपने प्रति ममता और राज्य के प्रति अहमता की बात सुनी तो वे तो दुख की सीमा में पहुँच गये। कैकई जी को यह कल्पना कर थीं कि भरत आकर मुझे ह्रदय लगा लेगा कि माँ आपने मेरे लिए कितना कष्ट सहा! मैं आपका उपकार जीवन पर्यन्त नहीं भूल सकता हूँ । पर श्रीभरत ने तो जिन शब्दों में कैकई को प्रताड़ित किया वे तो बहुत कठोर हैं।

सूर्यवंश जैसे पवित्र वंश और राम लक्ष्मण जैसे भाइयों के बीच में तेरी जैसी कुमति मेरी जननी ही मिलनी थी।तूने मुझे जन्मते ही क्यों नहीं मार दिया।राम के लिए बनबास माँगते हुए तेरे मुँहु में कीड़े क्यों नहीं पड़ गये?

स्वामी मैथिलीशरण जी ने कहा कि हम किसी को कष्ट तब दे सकते हैं जब उसके चित्त में उसी वस्तु को पाने की इच्छा हो जो आप उससे छीनने की शक्ति या अधिकार रखते हैं। जो आप छीन रहे हैं जब वह उसे चाहिए ही नहीं तो छीन लेने का अपयश आपको मिलेगा और उसके त्याग वृत्ति से उसको और यश मिलेगा।

ईश्वर कुछ पाने के लिए अवतरित नहीं होता है अपितु वह तो अपने भक्तों पर कृपा और करुणा करने के लिए ही अवतरित होता है।

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