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अशोक नगर जिले में रंगपंचमी पर खुली करीला धाम की गुफा: लाखों लोगों ने किए दर्शन, मान्यता- यहां हुआ था लव-कुश का जन्म

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मध्यप्रदेश के अशोकनगर में प्रसिद्ध करीला मेला रंगपंचमी से शुरू हो गया। बीजेपी सांसद केपी यादव ने ललितपुर गांव में झंडा चढ़ाकर इसका शुभारंभ किया। पूरे एक साल के बाद करीला धाम की गुफा 24 घंटे के लिए भक्तों के लिए खोल दी गई। भक्तों ने हवन कुंड में पूजा के बाद दर्शन किए। शाम तक 10 लाख से ज्यादा श्रद्धालु दर्शन कर चुके है। मेले में तीन दिन में 15 से 20 लाख लोगों के आने की उम्मीद है। पहाड़ी जनसैलाब नजर आया। पूरा माहौल नृत्यांगनाओं के घुंघरू और ढोलक की आवाज से गूंज उठा। मान्यता है कि यहीं पर लव-कुश का जन्म हुआ था।

करीला में मेला सालों से लग रहा है। इसका हर साल विस्तार हो रहा है। वाल्मीकि आश्रम मां जानकी धाम में जब मेला शुरू हुआ था तो आसपास के लोग यहां पर आते थे, लेकिन अब इसकी पूरी व्यवस्था प्रशासन करता है। इस बार लाखों श्रद्धालु यहां जुटेंगे। प्रशासन ने इसकी तैयारी कर ली है। जिस वक्त जिस परंपरा के साथ मेला शुरू हुआ था, आज भी वहीं परंपरा निभाई जाती है। यहां पर राई नृत्य का सबसे अधिक महत्व माना जाता है। मेला तीन दिन तक चलेगा।

लव-कुश के जन्मोत्सव पर अप्सराओं ने किया था नृत्य
मान्यता है कि जब सीता माता को वनवास में छोड़ा गया था उस वक्त सीता माता महर्षि वाल्मीकि जी के आश्रम करीला धाम पर ही रुकी थी। इसी आश्रम पर मां जानकी ने लव और कुश को जन्म दिया था, जिस वक्त लव-कुश का जन्म हुआ, उस वक्त स्वर्ग से अप्सराओं ने आकर यहां पर नृत्य किया था। इसी मान्यता को लेकर यहां पर नृत्यांगनाओं के द्वारा नृत्य करने की परंपरा चली आ रही है। रंगपंचमी की रात को सैकड़ों नृत्यांगनाएं बधाई नृत्य करती हैं।

​​​रंगपंचमी पर 24 घंटे के लिए ही खुलती है गुफा
मान्यता के अनुसार जिस गुफा में सीता माता ने लव-कुश को जन्म दिया था। उस गुफा को केवल रंगपंचमी के दिन ही खोला जाता है। पूजा पाठ करने के बाद यह गुफा 24 घंटे तक खुली रहती है इसके बाद इस गुफा के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं। श्रद्धालु रंगपंचमी के दिन इस गुफा के दर्शन करते हैं। इस गुफा में प्रज्लवित की गई अग्नि की भभूति की सबसे अधिक मान्यता है।

मन्नत पूरी होने पर करवाते हैं राई नृत्य
वैसे तो मां जानकी धाम करीला में हर दिन राई नृत्य होते हैं, लेकिन रंगपंचमी की सुबह से लेकर और रात भर सैकड़ों नृत्यांगना नृत्य करती हैं। मान्यता है कि कोई भी करीला धाम में मन्नत मांगता है और वह मन्नत पूरी हो जाती है तो फिर वह माता के दरबार में बधाई के तौर पर राई नृत्य करवाता है। राई नृत्य ज्यादातर बच्चे होने, नौकरी लगने यहां तक की चुनाव जीतने सहित हर प्रकार की मन्नत के लिए कराया जाता है।

यहां राम जी का नहीं है मंदिर
कहा जाता है कि भारत में केवल मां जानकी धाम करीला ही ऐसा स्थान है जहां पर माता सीता, लव-कुश और महर्षि वाल्मीकि जी की प्रतिमा है। इस मंदिर में राम जी की प्रतिमा नहीं है। केवल इसी मंदिर में बिना राम जी के साथ माता सीता है। इन सभी की प्रतिमा सैकड़ों साल पुरानी है। छोटे आकार की प्रतिमा आज भी मंदिर में स्थापित है। इस मंदिर में राम जी की नहीं बल्कि सीता माता की पूजा होती है। इस मेले में लाखों श्रद्धालु आते हैं इस आस्था के मेले को सफल बनाने के लिए प्रशासन खुद मन्नत मांगता है ताकि मेले में किसी भी प्रकार की घटना दुर्घटना न हो।

झंडा चढ़ाने से शुरू हुआ था मेला
जब करीला धाम पर लोगों का आना शुरू होने लगा और यहां से मन्नतें पूरी होने लगी तो राई नृत्य करवाते थे लेकिन इसी बीच विदिशा जिले के ललितपुर गांव के लोगों ने रंगपंचमी के दिन इकट्ठा होकर झंडा चढ़ाया। इसके बाद वह हर रंगपंचमी पर आकर झंडा चढ़ाने लगे। यह मान्यता बढ़ती चली गई और रंगपंचमी पर ही अधिक लोग झंडा चढ़ाने लगे। जिस दिन लोग सबसे अधिक झंडा चढ़ाने आते थी उस दिन वहां पर धीरे-धीरे दुकानें लगने लगी। यही कारण रहा कि देखते ही देखते बड़े आकार में मेला लगने लगा।

आखिरी समय होती है ‘घेरा की राई’
रंगपंचमी की सुबह से ही पूरी पहाड़ी पर राई नृत्य होते हैं। यह राई नृत्य दिन और रात भर चलते हैं। अगली सुबह तक नृत्यांगनाएं नृत्य करती है। नृत्यांगना मंदिर परिसर में आकर सबसे पहले नृत्य करती हैं। जिसके बाद जब मेला का छठ के दिन समापन होता है। तो एक साथ नृत्यांगना एकत्रित होकर नृत्य करती हैं। जिसे ‘घेरा की राई’ कहा जाता है जिसके बाद नृत्य बंद हो जाता है और मेले का समापन हो जाता है।

करीला धाम का इतिहास
इस धाम के इतिहास की बात करें तो आज से लगभग 200 वर्ष पहले महंत तपसी महाराज को रात में स्वप्न आया कि करीला गांव में टीले पर स्थित आश्रम में मां जानकी और लव-कुश कुछ समय रहे थे। लेकिन यह वाल्मीकि आश्रम वीरान पड़ा हुआ है। तुम वहां जाकर इस आश्रम को जागृत करो। इसके बाद अगले दिन सुबह होते ही तपसी महाराज करीला पहाड़ी को ढूढ़ने के लिए चल पड़े। जैसा उन्होंने सपने में देखा और सुना था वैसा ही आश्रम उन्होंने करीला पहाड़ी पर पाया। तपसी महाराज इस पहाड़ी पर ही रूक गए और स्वयं ही आश्रम की साफ-सफाई में जुट गए। उन्हें देख आस-पास के ग्रामीणजनों ने भी उनका सहयोग किया था। तभी से करीला धाम की शुरुआत हो गई।

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