आनंदपुर डेस्क :
सद्गुरु सेवा संघ आनंदपुर में रामकथा
।।विज्ञान आदि का प्रवर्तक है,अध्यात्म अनादि का।।
त्रिवेणी में गंगा यमुना तो दिखाई देती हैं पर सरस्वती के न दिखाई देने पर भी जो उन्हें मान लिया जाता है ! यही हमारे धर्म का अनादि तत्त्व है।
हमें अपनी साधना और पुरुषार्थ के द्वारा जो अर्जन हो उसे भगवान के चरणों में विसर्जन करना होगा।
हनुमान जी महाराज भगवान के हर कार्य को अपना मानते हैं, लक्ष्मण जी प्रभु की सेवा को अपने देह की सेवा की तरह करते हैं, भरत जी संसार की संपत्ति को भगवान की सम्पत्ति मानते हैं,
माता रामो मत्पितारामचन्द्र: स्वामी रामो मत्सखारामचन्द्र: सर्वस्वं में रामचन्द्रो दयालुर्नान्यंजाने नैव जाने न जाने,
मेरी माँ राम हैं, मेरे पिता राम हैं मेरे सखा भी दयालु श्रीरामचन्द्र जी ही है, मैं बस इतना ही जानता हूँ, और कुछ न मैं जानता हूँ, न ही जानने की इच्छा है,
देश बासियों को अपने देश और अपनी सनातन परम्परा के प्रति इसी भावना से प्रेम करना होगा, समर्पण की इस भावना से रामराज्य बनता है।

सेवहिं लखन सीय रघुबीरहिं जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहिं।
जिस प्रकार से अविवेकी व्यक्ति अपने शरीर की सेवा करता है, लक्ष्मण वैसी सेवा श्रीराम की करते हैं।
वहीं अयोध्या के पास नंदीग्राम में रहकर भगवान की पादुकाओं को सिंहासन पर ब्राजमान करके श्रीभरत पादुकाओं से आज्ञा मांगकर अयोध्या का राजकाज चलाते हैं,
बाह्य दृष्टि से पादुका जड़ है, और भरत चैतन्य हैं, पर भक्त और भक्ति दृष्टि से भरत मानते हैं कि मैं जड़ हूँ पादुका चैतन्य है।
जिसकी मति जड़ में चैतन्य तत्त्व को देखले वही चैतन्य है,जो पादुका को जड़ समझे वस्तुत:वही जड़ता है, पादुका में लकड़ी है यह सांसारिक दृष्टि है, पादुका में राम हैं यह हमारी सनातन और अनादि दृष्टि है,जो सबके पास नहीं होती है।
धर्म , संस्कार, व्यवहार, नीति, प्रीति, परमार्थ तथा स्वार्थ सबका निर्वहन केवल उसी अनादि को मानने से संभव होगा।
भरत ने पादुका को नहीं साक्षात् श्रीराम को सिंहासन पर बैठाया, और भरत की इसी चैतन्य दृष्टि के कारण चित्रकूट में भगवान श्रीराम भरत के साथ स्वयं लौटकर नहीं गये अपितु उन्होंने अपनी पादुका दे दी।
स्वामी मैथिलीशरण ने कहा कि संसार में लोग भगवान के पद में अपना पद डाल देते हैं तो अनर्थ हो जाता है, भरत ने भगवान के पद में अपना पद नहीं डाला।
भरत ने भागवान की पादुका की सेवा की, तो रामराज्य बना, लक्ष्मण ने उन चरणों की सेवा की इसलिए रामराज्य बना, और हनुमान जी को साक्षात् भगवान के चरण ही मिल गये इसलिए रामराज्य बना।