एमपी के स्मार्ट किसान ने बेमौसम फसल का रिस्क लिया: कमाया नौ गुना ज्यादा मुनाफा
दोस्त की सलाह पर डेढ़ एकड़ में लगाई ज्वार
न्यूज़ डेस्क :
सामान्य तौर पर खरीफ के सीजन में ज्वार की खेती की जाती है, लेकिन आपको ऐसे किसान से मिलवाते हैं, जिन्होंने रिस्क लेकर बेमौसम फसल उगाई। यानी रबी के सीजन में खरीफ की फसल ज्वार को खेत में बोया। दोस्त की सलाह पर रिस्क ली। डेढ़ एकड़ में बोवनी की और कामयाब भी हुए। नौ गुना ज्यादा मुनाफा भी कमाया।
छिंदवाड़ा के सीके सहस्रबुद्धे रिटायर्ड टीचर हैं। उन्होंने बताया कि वर्षों से नुकसान में चली आ रही खेती को ज्वार की पैदावार ने मुनाफे में पहुंचा दिया। आखिर इस बेमौसम खेती में क्या चुनौतियां पेश आईं? उनका सामना किसान ने कैसे किया? खरीफ की फसल को रबी के सीजन में बोने की वजह क्या रही?
किसान सीके सहस्रबुद्धे की जुबानी, खेती को लाभ का धंधा बनाने की कहानी…
‘दीवाली के बाद रबी और जून के बाद खरीफ की फसल बोई जाती है। ज्वार भी खरीफ की फसल है। जिले का मैं पहला ऐसा किसान हूं, जिसने खरीफ की फसल को रबी के सीजन में लगाया। परिणाम अच्छा रहा। मुनाफा भी खूब हुआ। गूजरखेड़ी में पुश्तैनी जमीन है। बचपन से ही खेती के प्रति गहरा लगाव रहा है। पहले मैं रबी के सीजन में मूंगफली की खेती करता था, ताकि फसल के साथ मवेशियों के लिए पर्याप्त आहार मिल जाए। दशकों से मूंगफली की फसल करता आ रहा है। मूंगफली की फसल में मैंने देखा कि लंबे समय से लागत भी लगातार बढ़ती जा रही थी।
मुनाफा तो दूर लागत भी नहीं निकल पा रही थी। ऐसे में मैं ऐसी फसल तलाश रहा था, जो मुनाफा तो दे ही, लागत भी कम हो। इसी बीच, एक दोस्त ने रबी सीजन में ज्वार की खेती करने की सलाह दी। पहले तो भरोसा नहीं हुआ। ऐसा लगा, जैसे एक नुकसान को पाटने के फेर में दोबारा नुकसान नहीं उठाना पड़े। फिर मैंने कृषि वैज्ञानिकों से सलाह ली। उनसे रबी सीजन में ज्वार की खेती के फायदे और नुकसान के साथ बुआई के दौरान आने वाली चुनौतियों पर चर्चा की।
आखिरकार, तय किया कि रबी सीजन के आखिर में ज्वार की खेती करूंगा। इसी साल फरवरी में मैंने डेढ़ एकड़ खेत में ज्वार की फसल लगाई। सिंचाई के लिए थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन खरीफ के सीजन के मुकाबले खरपतवार की चिंता खत्म हो गई।
ज्वार की खेती के लिए सिर्फ अलग मौसम का चुनाव किया। खेती के तरीके और फसल को बीमारियों से बचाने के उपाय पहले ही तरह ही रहे। डेढ़ एकड़ में अधिकतम 20 हजार की लागत से ज्वार की खेती की। 100 से 110 दिन बाद जून में ज्वार की 40 क्विंटल पैदावार मिल गई। 40 रुपए प्रति किलो की दर से बेचने पर एक लाख 60 हजार रुपए मिले। वहीं ज्वार की कड़वी से 40 हजार रुपए की आमदनी हुई। ज्वार की कड़वी मवेशियों के लिए पशु आहार के रूप में उपयोग किया जाता है।’
चार बार सिंचाई की, खरपतवार नहीं उगे
किसान ने बताया कि फसल तैयार होने के दौरान 4 बार सिंचाई करना पड़ी। इस फसल में कीट का भी प्रकोप नहीं के बराबर रहा। शायद गर्मी की वजह से कीट का प्रकोप कम रहा होगा। फसल को पक्षियों से बचाने के खेत के आसपास लगे बड़े पेडों की छंटाई करवाई, ताकि पक्षियों को खेत के आसपास बैठने की जगह नहीं मिल सके।
इसके अलावा, फसल को पक्षियों से बचाने के लिए ऊंचाई पर मचान बनाया। इस मचान पर एक कर्मचारी तैनात किया, जो सुबह से शाम तक पक्षियों को भगाने के लिए खाली पीपा बजाता था। सुबह शाम धूप कम होने की वजह पक्षी आने की संभावना होती थी, लेकिन पीपा बजाने की वजह से पक्षी खेत में नही आते थे।
व्यावसायिक खेती कर कमा सकते हैं अच्छा मुनाफा
सीके सहस्रबुद्धे कहते हैं कि ज्वार में मिलने वाले प्रोटीन में ल्यूसिन अमीनो एसिड की 1.4 से 2.4 प्रतिशत तक की मात्रा होती है। इसके दानों में ल्यूसिन अमीनो एसिड की मात्रा अधिक होने के चलते ज्वार खाने वाले व्यक्तियों में पैलाग्रा किस्म का रोग हो सकता है। अधिक बारिश वाले क्षेत्रों में ज्वार की अच्छी फसल प्राप्त की जा सकती है। जिले के किसान ज्वार की खेती व्यावसायिक तौर पर करके अधिक मुनाफा भी कमा सकते हैं।
ज्वार के बीजों की बुआई ऐसे करते हैं
ज्वार की बुआई ड्रिल और छिड़काव दोनों तरीके से की जाती है। बुआई के लिए एक कतार से दूसरे कतार की दूरी 45 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। साथ ही, बीज को 4 से 5 सेंटीमीटर गहराई में बोना चाहिए। यदि बीज अधिक गहराई पर बोया जाए, तो बीज का जमाव अच्छा नहीं होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि भूमि की उपरी परत सूखने पर सख्त हो जाता है।
कतार में बुआई देशी हल के पीछे कुडों में या सीड ड्रिल से की जा सकती है। सीड ड्रिल से बुवाई करना सबसे अच्छा रहता है, क्योंकि इससे बीज समान दूरी व समान गहराई पर पड़ता है। ज्वार का बीज बुआई के 5 से 6 दिन बाद अंकुरित हो जाता है। वहीं छिड़काव विधि से रोपाई करने पर पहले से तैयार खेत में इसके बीजों को छिड़क कर रोटावेटर की सहायता से हल्की जुताई करते हैं। हलों के पीछे हल्का पाटा लगाने से ज्वार के बीज मिट्टी में अंदर दब जाते हैं।
ज्वार की फसल देखने पहुंचे कलेक्टर
कृषि विभाग के कई पदाधिकारी और कृषि वैज्ञानिक भी पैदावार देखने पहुंचे थे। कलेक्टर शीतला पटले ने फसल का निरीक्षण किया। कलेक्टर ने किसान के नवाचार की सराहना की। कलेक्टर ने कहा कि मात्र 20 हजार की लागत में 2 लाख रुपए तक की आमदनी प्रभावित करती है।
डीडीए जितेन्द्र कुमार सिंह ने सौंसर, पांढुरना के किसानों से अपील की है जिन किसानों के पास पानी की पर्याप्त उपलब्धता है, उन्हें ज्वार की खेती करनी चाहिए। आने वाले दिनों में जिले के कई किसान सीके सहस्रबुद्धे के नवाचार पर काम करेंगे।
खरपतवार के लिए करते हैं निराई-गुड़ाई
ज्वार की फसल में खरपतवार के नियंत्रण की अधिक जरूरत नहीं होती। अच्छी पैदावार के लिए फसल में खरपतवार नियंत्रण जरूरी होता है। इसके लिए रासायनिक और प्राकृतिक दोनों ही तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। रासायनिक विधि में एट्राजिन का छिड़काव बीज रोपाई के तुरंत बाद करना होता है। बीज रोपाई के बाद पहली गुड़ाई 20 से 25 दिन बाद की जाती है।
ज्वार की कटाई 110 दिन बाद करते हैं। जब पौधों पर लगी पत्तियां सूखी हुई दिखने लगे, उस दौरान फसल की कटाई की जाती है। इसके फसल की कटाई दो से तीन बार तक की जा सकती है। पौधों को भूमि की सतह के पास से काटा जाता है। कटाई के बाद दानों को अलग कर लेते हैं। फिर दानों को ठीक से सूखा लिया जाता है। इसके बाद मशीन के माध्यम से दानों को अलग करते हैं।