विदिशा

धूमधाम के साथ पूर्ण् हुआ आनंदपुर सद्गुरु संकल्प नेत्र चिकित्सालय में रामकथा ज्ञान यज्ञ का समापन: ट्रस्ट के डायरेक्टर हुए सम्मिलित

आनंदपुर डेस्क :

कथा समापन में सद्‌गुरु सेवासंघ के अध्यक्ष विशद भाई मफतलाल, चित्रकूट के निदेशक ट्रस्टी डा, बी, के, जैन. श्रीमती ऊषा जैन ,आनंदपुर के निदेशक ट्रस्टी डा, विष्णु भाई जोबनपुत्रा तथा श्रीमती मिलौनी बेन मिहीर . ट्रस्टी नंदा बल्लभ लोहाणी, तथा ट्रस्टी उपाध्याय परिवार ने स्वामी जी का माल्यार्पण कर स्वागत किया, अंतिम समापन भाषण में भारती बेन जोबनपुत्रा ने स्वामी मैथिलीशरण जी, तथा सभी श्रोताओं और समाचार पत्रों की सहभागिता के लिए कोटश:धन्यबाद किया।

बड़े से बड़े कार्य करने बाले का सर्वप्रथम गुण और योग्यता यह होती है, जिसके कारण वह अपने क्षेत्र में शिरोमणि हो जाता है. वह है उसका मसक समान हो जाना, (छोटे से छोटा हो जाने में संकोच न करना) क्योंकि हमें अपने स्वामी प्रभु श्रीराम
का कार्य करना है हनुमान जी का अपना न
तो कोई अभिमान है,और ना ही स्वाभिमान है, क्योंकि संसार में ९९% स्थानों पर स्वाभिमानकी जगह अभिमान की प्राणतिष्ठा करके लोगों को अपनी ही निर्मित कृति-मूर्ति की पूजा करते देखा जा सकता है,और उस बेचारे साधक को कदाचित् पता ही नहीं होता है कि जिसको वह स्वाभिमान मान रहा है वह उसके अंदर सुशुप्त अभिमान ही होता है
,स्वामी मैथिलीशरण,,,,,


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शेर का बच्चा, और शेर, साँप के बच्चे और साँप में जितना और जो अंतर होता है वही अंतर स्वाभिमान और अभिमान में होता है,
माने स्वाभिमान ही आगे जाकर अभिमान बनता है,
जो अभिमान से ऊपर होता है वह
।।मसक समान रुप कपि धरी।।
और
।।परम भूधराकार सरीरा ।।
दोनों होने में तनिक भी न तो संकोच करेगा और न ही प्रयास करेगा,
प्रायोजित जो भी है वह सब अहंकार के छोटे बच्चे है,
जो आगे चलकर समायोजित हो जाते हैं,भक्त के जीवन में प्रायोजित कुछ भी नहीं होता है,
हनुमान जी जब लंका में प्रवेश द्वार पर पहुँचे जहां उनकी भेंट लंकिनी से हुई भाव भूमि की दृष्टि से ये वही मध्य स्थान था जहाँ पर जाकर हिरण्यकश्यपु का अंत होने बाला मध्य द्वार था,
न बाहर न अंदर,
ये साधक के जीवन का संध्याकाल है, मध्यकाल है ।यहीं पर लंकिनी रहती है, जिसको अपने स्वरुप की विस्मृति हो गई है, ब्रह्मा का दिया गया संदेश लंकिनी को भूल गया और रावण की आज्ञा को ही परम धर्म मानकर सेवा में लगी है, इसी को कहते हैं मतिभ्रम ।
साधक जब संसार की प्रवृत्तियों की लंका में प्रवेश करने चलता है, तो कदाचित यह भूल जाता है कि प्रवृत्ति में घुसना तो सरल होता है, पर उन प्रवृत्तियों में से अछूता रहकर निकल पाना असंभव है, इसमें तो केवल भगवान और भगवान का भक्त ही जाकर लौट सकते हैं, हनुमान जी इसीलिए लंका में जाकर लौटने में सफल हो गये,
वस्तुत: साधक को अंदर और बाहर रहकर कुछ करने की शिक्षा साधना के पूर्व में ही लेनी होती है,
पर मध्य में ही उसका अपना अहंकार का बच्चा बड़ा हो जाता है,और व्यक्ति धड़ाम से गिर पड़ता है। इसके लिए आवश्यक है कि साधक एकांत और सांत चित्त से यह विचार करे कि न तो मेरे पास बाल्यकाल में कुछ था, और न ही न ब्रद्धावस्था में ही कुछ रहेगा,


जो दीख रहा है बस केवल बीच में ही है,
मैं नहीं होता तो क्या होता, मैं नहीं होऊँगा तो क्या होगा, आप लोग मुझे अभी समझ नहीं पा रहे हैं,
ये सब के सब अहंकार से परिपूर्ण शब्द हैं, आप लोग जानते नहीं मैंने वहाँ पर जाकर वह वह करके दिखाया है, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।
इस मैं के आते ही स्वाभिमान अभिमान हुए बगैर नहीं रह सकता है,
तो हनुमान जी जब लंका में प्रवेश करने लगे तो गोस्वामी जी ने कहा कि हनुमान जी को यह नहीं लगा कि मैं इस समस्या को अपने बल पर जीत लूंगा ।बल्कि अहं पर विजय प्राप्त करने की अद्भुत् कला हनुमान जी ने बताई, अहं पर विजय प्राप्त करने के मार्ग केवल दो लोग ही जानते हैं, एक तो स्वयं भगवान , दूसरा भगवान का भक्त होता है,जो अहं पर विजय प्राप्त कर लेता है, अहं पर विजय प्राप्त करने के जिस उपाय का प्रयोग हनुमान जी ने किया वह बहुत सुन्दर और सरल है, क्या??? बस हम लोगों को भी वही करना चाहिए, जो कला हनुमान जी ने प्रयोग की।
संसार में आपके समक्ष जो अपने को बहुत बड़ा बताने का प्रयास करे बस उसके सामने बिल्कुल अति लघु रुप – माने ज़ीरो हो जाना, छोटे से छोटे बन जाइये,
!!मसक समान रुप कपि धरी!! छोटे हो गये
और दूसरी पद्धति भगवान ने परसुराम जी के सामने उपयोग की,
वहाँ भी वही अति लघु भगवान ने परशुराम जी के समक्ष जो पानी अद्भुत कला और शील स्वभाव का परिचय दिया कहा महाराज हममें और आपमें तो कोई तुलना हो ही नहीं सकती है,और सुष्पष्ट भी कर दिया, कि ( हम तो मात्र राम हैं- छोटे हैं, आप तो परशुराम हैं – बड़े हैं, )
राम मात्र लघु नाम हमारा, परसु सहित बड़ नाम तुम्हारा,
हमहिं तुमहिं सरबर कस नाता. कहहु सो कहाँ चरण कहँ माता,
हमारा छोटा सा राम नाम, और आपका बड़ा परशुराम नाम,
जहां आपका चरण रहता है वहाँ हमारा सिर रहता है,
परिणाम हुआ कि परशुराम जिनके अवतार का काल पूरा हो चुका था और बस अस्त होते सूर्य के बचे हुए प्रकाश की तरह वे अपनी भूमिका को समझ गये और पूर्ण राम को प्रणाम करके महेन्द्र पर्वत पर तपस्या करने चले गये,
यहाँ लंका में राम भक्त हनुमान ने अपनी स्थिति प्रह्लाद बाली मानी और वे
।। नरहरि।।
भगवान निृसिंह का ध्यान करने लगे,
मसक समान रुप कपि धरी, लंकहि चलेउ सुमिरि नर – हरि
माने हनुमान जी ने कहा हे प्रभु मैं आपके नाम की मुद्रिका लेकर प्रवृत्ति की लंका में प्रवेश कर रहा हूँ, और मुझमें कोई शक्ति नहीं है कि मैं इसमें विजय प्राप्त कर पाउंगा, तो आप अपने नाम की और नाम जापक की लाज बचाने के लिए नर- हरि बन जाइये, ( संस्कृत में सिंह का एक नाम हरि भी है )
तो हनुमान जी ने भगवान के राम रुप का स्मरण न करके नृसिंह रुप का स्मरण किया,
राम नाम नर केसरी कनक कसिपु कलिकाल,
जापक जन प्रह्लाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल,

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