एक टीचर से किया वादा, गांववालों ने 50 दिन में पूरा किया अपना वादा: 20 साल बाद स्कूल को मिले थे गुरुजी

ऊबड़-खाबड़ रास्ता देख कराने वाले थे ट्रांसफर

जयपुर डेस्क :

राजस्थान के उदयपुर का आदिवासी बाहुल्य एरिया। यहां पीपलीखेत गांव में 20 साल पहले पांचवीं तक के स्कूल की शुरुआत की गई थी। पहली बार 2022 में परमानेंट टीचर लगाया गया। टीचर पहुंंचा तो पता चला कि गांव से स्कूल तक सड़क तो दूर समतल रास्ता तक नहीं है। 6 किलोमीटर का ऊबड़-खाबड़ रास्ता है, जिसपर पैदल चलना भी मुश्किल। टीचर से तय किया कि वह अपना ट्रांसफर करा लेगा।

गांववालों को पता चला तो वे टीचर के पास गए और बोले- गुरुजी 15 अगस्त को आप अपनी बाइक पर ही स्कूल जाएंगे। तीन महीने में ग्रामीणों ने वादा पूरा किया और 6 किलोमीटर के रास्ते को समतल बना दिया।

पढ़िए पूरी रिपोर्ट…

उदयपुर जिले के कोटड़ा तहसील के खूणा ग्राम पंचायत का पीपलीखेत गांव। जिला मुख्यालय से इसकी दूरी करीब 150 किलोमीटर से ज्यादा है।

2002 में यहां सरकार की ओर से एक प्राइमरी स्कूल की शुरुआत की गई थी। पांचवीं तक के इस स्कूल में कभी टीचर आता तो कभी नहीं। बच्चों का भी ये ही हाल था। कई बार बच्चे आते तो कई बार 4 से 5 बच्चे ही होते थे। सरकार की ओर से यहां संविदा पर शिक्षा मित्र के तौर पर एक टीचर की नियुक्ति की गई थी।

जून 2022 में पहली बार यहां ग्रेड थर्ड टीचर समरथ मीणा को पोस्टिंग दी गई। समरथ प्रतापगढ़ जिले के अरनोद के रहने वाले हैं। उनकी ये पहली पोस्टिंग थी। उन्हें नहीं पता था कि पीपलीखेत गांव में जाने से पहले उन्हें सेई नदी पार करनी पड़ेगी।

वह जब सेई नदी तक पहुंचे तो वहां घुटने तक पानी था। इसके बाद वह गांव में पहुंचे तो पता चला कि स्कूल तक पहुंचने के लिए भी 6 किलोमीटर का कच्चा और ऊबड़-खाबड़ रास्ता है। जैसे-तैसे एक साल यहां गुजारा।

समरथ ने सोच लिया था अब यहां से ट्रांसफर लेना है

समरथ ने बताया कि वह इन हालात को देख काफी परेशान हो गए थे। आखिर साल 2023 में सोच लिया था कि उन्हें यहां से ट्रांसफर करवाना है। उन्होंने इसके प्रयास भी शुरू कर दिए थे।

जून 2023 में ग्रामीणों को पता चला कि समरथ यहां से अपना ट्रांसफर करवा कर रहे हैं। समरथ ने बताया कि रास्ते की परेशानी की वजह से वह यहां से जाना चाहते हैं तो ग्रामीणों ने उनसे रुकने की गुजारिश की। 24 जून 2023 को ग्रामीणों ने बैठक बुलाई, इसमें समरथ भी थे। ग्रामीणों ने सभी के सामने वादा किया कि वे गांव में खुद अब रास्ता बनाएंगे और 15 अगस्त को बच्चों के टीचर बाइक पर स्कूल में आएंगे।

50 दिन में बना गांव के लोगों ने बना दिया रास्ता

बच्चों और टीचर से किए वादे को पूरा करने के लिए अगले ही दिन गांव के लोग जुट गए। इसके लिए 35 लोगों की टीम बनाई गई और सभी को अलग-अलग काम दिए गए। सबसे पहले गांव से स्कूल की तरफ जाने वाले रास्तों से बड़े-बड़े पत्थरों और मिट्‌टी के ढेर को हटाया गया।

ग्रामीण अपने घर से ही फावड़ा, गैंती, हथौड़ा और अन्य सामान लेकर हर सुबह निकलते और 8 घंटे तक काम करते। रास्ते से बड़े पत्थरों को हटाने के बाद ऊबड़-खाबड़ रास्ते को समतल करने का काम शुरू किया। ये सिलसिला करीब 50 दिनों तक चलता रहा। इसके बाद समतल जमीन को मिट्‌टी व कंकड़ से तैयार कर कच्ची सड़क बनाई।

14 अगस्त को जब समरथ गांव पहुंचे तो ग्रामीण उन्हें उस रास्ते पर ले गए, जहां से बच्चों और टीचर को 6 किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता था। आखिर ग्रामीणों ने अपना वादा पूरा किया और अगले दिन समरथ अपनी बाइक से स्कूल में पहुंचे।

एक टीचर के लिए क्यों बनाया रास्ता?

गांव में राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय है। यहां शिक्षा को लेकर गांववालों ने रुचि नहीं दिखाई। गांव के लोगों का मानना था कि न तो स्कूल में संसाधन है और न ही बच्चों के लिए कोई सुविधा। जब समरथ ने जॉइन किया ताे उन्होंने गांव के लोगों को जागरूक करना शुरू किया। ग्रामीणों के पास जाते और उन्हें बच्चों को स्कूल भेजने के लिए समझाते थे।

उन्हें जब लगा कि ऐसे बच्चों का नामांकन नहीं बढ़ेगा तो अपने स्तर पर ही सर्वे शुरू किया। इस दौरान बच्चों की संख्या करीब 32 थी। इन बच्चों के साथ दूसरे बच्चों के पास जाते और उन्हें पढ़ाई के लिए जागरूक करते। नतीजा यह रहा कि एक साल में बच्चों की संख्या बढ़कर 70 हो गई।

पहली बार 9 बच्चों को छठी में नामांकन कराया

इतिहास में एमए पास समरथ कहते हैं कि उनको सबसे ज्यादा खुशी तो इस बात की है कि इस स्कूल में पहले तो कई बच्चे नामांकन ही नहीं कराते और जो कराते वो भी पांचवीं के बाद पढ़ते नहीं थे। इस बार उन्होंने पांचवीं के नौ बच्चे जो पास हुए उनको समझाया और कहा कि आगे भी पढ़ाई करनी है। इसके बाद इन बच्चों को छठी क्लास में पढ़ाया। ये सीनियर स्कूल भी गांव से सात किलोमीटर दूर है, लेकिन समरथ के प्रयास से इन बच्चों ने सीनियर स्कूल में एडमिशन लिया और अब वे पढ़ाई भी कर रहे हैं।

बारिश में रास्ता बंद, स्कूल तक पैदल जाना पड़ता है

ऊंचे पहाड़ और पथरीला रास्ता देख इस स्कूल में कोई भी टीचर नहीं आना नहीं चाहता था। ग्रामीणों का कहना था कि जिस टीचर को यहां परमानेंट लगाने की बात होती, वे मना कर देते थे। क्योंकि बारिश के दौरान गांव से स्कूल के बीच का रास्ता तक बंद हो जाता है। गांव में आने के बाद भी बच्चों और टीचर्स को पैदल ही जाना पड़ता है। यहां बाइक तक ले जाना असंभव था। इस गांव तक आने के लिए सेई नदी को दो बार पार करना पड़ता है।

पूरे गांव में दो लोगों के पास ही बाइक

समरथ इस गांव से 22 किलोमीटर दूर मांडवा में किराए पर रहते हैं। ग्रामीणों ने बताया कि इससे पहले भी काफी प्रयास किए गए कि सड़क बन जाए, लेकिन आज दिन तक किसी ने नहीं सुनी। गांव में दो लोगों के पास ही बाइक है। उन्हें भी 5 किलोमीटर दूर रखना पड़ता है और फिर पैदल जाना पड़ता है।

अटेडेंस से लेकर हर रिकॉर्ड पहाड़ी से ही जाता है

समरथ कहते है कि गांव में मोबाइल व लैंडलाइन किसी का नेटवर्क नहीं है। यहां स्कूल की अटेडेंस व अन्य रिकॉर्ड के लिए गांव से दूर पहाड़ी पर जाना पड़ता है और वहीं से भेजते हैं।

उन्हें खुद भी किसी से बात करनी होती है तो स्कूल की छुट्‌टी होने के बाद जब वह अपने घर पहुंचते हैं तो बात हो पाती है। कई बार सोचा भी कि बच्चों को ऑनलाइन एक्टिविटी दिखाई जाए, लेकिन इंटरनेट की वजह से ये भी संभव नहीं है।

पहले स्कूल मर्ज होने के कगार पर था

गांव का स्कूल एक टीचर के भरोसे ही था। ऐसे में पेरेंट्स ने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया। इस बीच सरकार स्कूलों को मर्ज कर रही थी तब इस स्कूल को भी मर्ज करने की तैयारी थी। लेकिन, किसी वजह से इसका नाम नहीं आया। लेकिन, अब इस स्कूल में नामांकन बढ़ाया जा रहा है। दावा किया जा रहा है कि अगले सेशन तक यहां बच्चों की संख्या 100 से ज्यादा हो जाएगी।

पांचवीं तक स्कूल, दो कमरे वे भी जर्जर, बिना छत का बरामदा

स्कूल की स्थिति भी बहुत खराब है। यहां स्कूल में दो कमरे बने हैं, लेकिन इनकी भी हालात ऐसी है कि बारिश के दौरान यहां बच्चों को भी नहीं बैठा सकते। एक छोटा सा बरामदा भी बना है, लेकिन वह भी बिना छत का है।

लेकिन, जब बच्चों की संख्या बढ़ने लगी तो भामाशाहों की मदद से इसे थोड़ा सुधारा गया और इसके बाद इसका रंग रोगन करवाया गया ताकि ये स्कूल बिल्डिंग जैसा लगे।

बारिश में कमर तक पानी से गुजरते

ग्रामीणों ने बताया कि इस क्षेत्र में बारिश के समय सबसे बड़ी मुश्किल होती है। जैसे ही लोग गांव में आना या जाना होता है तब उनको इस नदी के अंदर से होकर कमर तक पानी से गुजरना मजबूरी है।

अस्पताल के लिए मांडवा जाना पड़ता है और पीने का पानी सेई नदी से लाते है। मोबाइल से बात करनी है तो पहाड़ी पर जाना होगा। रात के समय अंधेरा हो जाता है, क्योंकि यहां आज दिन तक बिजली नहीं पहुंची। गांव में सरकारी भवन के नाम पर ये स्कूल मात्र है और कुछ नहीं।

वहीं जिला परिषद सदस्य सुनीता देवी गरासिया का कहना है कि इस गांव को सड़क से जोड़ने के लिए उन्होंने कई प्रस्ताव भेजे। लेकिन, आज तक इस प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दी गई।

मेरी पहली पोस्टिंग वाले ये दिन सबसे संघर्ष वाले दिनों में थे

समरथ ने बताया कि मेरे जीवन के ये सबसे संघर्ष भरे दिन थे, जिसको मैं कभी नहीं भूल सकता हूं। पहले तो हताश हो गया था। संघर्ष भरे 12 किलोमीटर रास्ते से आना जाना मुश्किल था। पैदल निकलता तो ये ही सोचता था कि कैसे भी ये समय निकल जाए। मन में कई विचार भी आए। एक बार सोच लिया था कि इस गांव से जाना है। लेकिन, गांव के लोगों ने जो मेरे लिए किया है अब मेरा मन बदल चुका है। मैंने यहांं के बच्चों के लिए सपना देखा है। जब मैंने अपने सपने के बारे में इन्हें बताया तो गांव के लोग और यहां के युवा मुझसे जुड़ने लगे। मेरी तकलीफ को अपना समझा और मेरे लिए रास्ता बना दिया, इससे बड़ा और क्या हो सकता है।

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