MP के रायसेन किले पर सैंकड़ों साल से रोजेदारों के लिए निभाई जा रही अनूठी परंपरा: तोप की गूंज से मिलती है सेहरी-इफ्तारी की सूचना

रायसेन डेस्क :

रमजान का पाक माह शुरू हो चुका है। अल्लाह की इबादत में रोजे रखे जा रहे हैं। इस पूरे माह रोजेदारों के लिए सेहरी और इफ्तार का समय सबसे अहम होता है। आजकल जहां आधुनिक संसाधनों से सेहरी और इफ्तारी की सूचना देने का चलन है। वहीं, मप्र का रायसेन जिला ऐसा है जहां आज भी परंपरागत और अनूठे तरीके से सेहरी और इफ्तारी की सूचना पहुंचाई जाती है। जिसके तहत रायसेन के किले पर सेहरी से पहले और शाम को इफ्तारी के वक्त तोप दागने की परंपरा है। जो आज से नहीं करीब 300 साल से चली आ रही है। यही नहीं यहां हिंदू परिवार के सदस्य भी ढोल पीटकर रोजेदारों काे जगाते हैं।

आइए जानते हैं इस अनूठी परंपरा से जुड़ी अहम बातें

मध्यप्रदेश की राजधानी भाेपाल से करीब 47 km दूर रायसेन जिला बसा हुआ है। यहां रमजान माह में सुबह और शाम के वक्त अगर कोई बाहरी शख्स पहुंच जाए तो वह यहां गूंजने वाली तोप की आवाज से न केवल चौंक जाएगा। बल्कि किसी आशंका का अनुमान भी लगा बैठेगा। लेकिन, हकीकत इससे कहीं अलग है। दरअसल, यहां रमजान माह के पवित्र दिनों में इफ्तारी और सेहरी की सूचना देने के लिए किले की पहाड़ी से 2 वक्त तोप चलाई जाती है। जिसकी आवाज सुनकर शहर सहित आसपास के लगभग 35 गांवों के रोजेदार रोजा खोलते हैं। यह परंपरा तब से चली आ रही है जब सेहरी और इफ्तारी की सूचना देने के लिए कोई साधन नहीं हुआ करते थे। करीब 300 साल पहले रायसेन किले पर राजा-नवाबों का शासन हुआ करता था। उन दिनों से ही लोगों को सूचित करने के लिए तोप के गोले दागे जाने की शुरुआत हुई थी। इसके बाद साल 1936 में भोपाल के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह ने बड़ी तोप की जगह एक छोटी तोप चलाने के लिए दी। इसके पीछे वजह यह थी कि बड़ी तोप की गूंज से किले को नुकसान पहुंच रहा था।

जिला प्रशासन देता है एक माह का लाइसेंस

रायसेन के किले से इस तोप को चलाने की प्रक्रिया भी कम रोचक नहीं है। दरअसल, इसके लिए जिला प्रशासन बाकायदा एक माह के लिए लाइसेंस जारी करता है। तोप चलाने के लिए आधे घंटे की तैयारी करनी पड़ती है। इसके बाद तोप दागी जाती है। जब रमजान माह समाप्त हो जाता है तब तोप की साफ-सफाई कर सरकारी गोदाम में जमा कर दी जाती है। पूरे महीने तोप दागने में करीब 70 हजार रुपए खर्च हो जाते हैं।

मस्जिद से मिलता है तोप चलाने का सिग्नल

तोप चलाने से पहले दोनों टाइम टांके वाली मरकाज वाली मस्जिद से सिग्नल मिलता है। सिग्नल के रूप में मस्जिद की मीनार पर लाल या हरा रंग का बल्ब जलाया जाता है। उसके बाद किले की पहाड़ी से तोप चलाई जाती है। ऐसा बताया जाता है राजस्थान में तोप चलाने की परंपरा है। उसके बाद देश में मप्र का रायसेन ऐसा दूसरा शहर है जहां पर तोप चलाकर रमजान माह में सेहरी और इफ्तारी की सूचना दी जाती है।

रात के अंधेरे में सुबह 3.30 बजे किले पर चढ़ते हैं

सेहरी की सूचना देने के लिए तोप चलाने वाले सुबह लगभग 3.30 बजे किले की पहाड़ी पर चढ़ते हैं। इसके बाद सुबह 3.40 बजे तोप चलाकर सेहरी की सूचना देते हैं। इसी प्रकार इफ्तारी के लिए शाम को 6:15 बजे किले पर पहुंचकर तोप चलाने की तैयारी करते हैं, और समय आने पर पीछे माचिस से आग लगा देते हैं और चंद मिनटों में ही जोर का धमाका होता है। उसके बाद तोप चलाने वाले सखावत उल्लाह और उनकी टीम के सदस्य टोंक के पास ही रोजा खोलते हैं।

सेहरी के लिए हिंदू परिवार बजाता है नगाड़ा

रायसेन में रमजान माह में हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल देखने को मिलती है। यहां सालों से हिंदू बंशकार परिवार के लोग रोजदारों को जगाने के लिए रात 2 बजे से सुबह 4 बजे तक नगाड़े बजाते हैं, ताकि लोग समय से पहले तैयारी कर सकें। नगाड़े बजाने की परंपरा भी प्राचीन काल से ही चली आ रही है। नगाड़े किले की प्राचीर से बजाए जाते हैं। इससे इनकी आवाज मीलों दूर तक सुनाई देती है।

चार पीढ़ियों से चला रहे तोप : काजिम परवेज

25 सालों से तोप चला रहे काजिम परवेज अख्तर उर्फ पप्पू ने बताया कि उनके दादा काजी बरकत उल्लाह रमजान माह में तोप चलाते थे। उसके बाद उनके पिता सिकावतउल्ला ने तोप चलाई। फिर चाचा शुक्रअल्लाह तोप चलाते रहे। अब वह चौथी पीढ़ी में तोप चला रहे हैं। तोप को चलाने के लिए पहले कपड़े को सुतली से लपेटकर एक गोला बनाया जाता है, उसके बाद मसाले के लिए गंधक, पोटाश, मसूर की दाल, कोयला का उपयोग किया जाता है। यह सामग्री तोप के मुंह में डालकर उसके ऊपर से सुतली का गोला डाला जाता है। डंडे से उसे दबाया जाता है, तब कहीं जाकर तोप एक बार में चलने लायक होती है।

नवाब हमीदुल्लाह ने 1936 में दी थी तोप

शहर काजी जहीरूद्दीन बताते हैं कि तोप चलने की परंपरा तो राजा और नवाबी शासनकाल से चली आ रही है। पहले बड़ी तोप चलाई जाती थी। जिसकी गूंज कई किलोमीटर दूर तक जाती थी, लेकिन उसकी आवाज काफी तेज गूंजती थी और उससे किले को क्षति होने की आशंका था। ऐसे में 1936 से छोटी तोप चलाई जाती है। जिसे भोपाल के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह ने दी थी। तब से अब तक 87 साल से यही छोटी तोप चलाई जाती रही है।

भोपाल से रायसेन तोप देखने पहुंचे लोग

भोपाल से अपने दोस्तों के साथ आए शोएब सैयद अली ने बताया कि रायसेन में तोप से सेहरी और इफ्तार की सूचना देने के लिए तोप चलाने के बारे काफी सुन रखा था। इसके वीडियो भी देख हैं। ऐसे में हमने सोचा कि चलो आज रायसेन चलकर खुद ही यह नजारा देखते हैं। बता दें, रायसेन के किले पर बड़ी संख्या में भोपाल और आसपास से लोग तोप देखने पहुंचते हैं।

सिर्फ कोरोना काल में ही नहीं चली तोप

मुस्लिम त्योहार कमेटी के पूर्व अध्यक्ष यामीन उर्फ बाबू भाई ने बताया कि कोरोना काल में लॉकडाउन लगा था, हमने तोप चलाने की परमिशन के लिए कलेक्टर उमाशंकर भार्गव को आवेदन दिया था। उन्होंने तोप चलाने के लिए परमिशन भी दी, लॉकडाउन के चलते हमने निर्णय लिया था कि तोप नहीं चलाएंगे। जिस कारण लगभग 300 साल पहले से लगातार रमजान में चलाई जाने वाली तोप नहीं चलाई गई थी। ऐसा पहली बार ही हुआ था।

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